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    दिल में ना हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती
    ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती

    कुछ लोग यूँ ही शहर में हमसे भी ख़फा हैं
    हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती

    देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
    वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती

    हँसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत
    रोने को यहाँ वैसे भी फुरसत नहीं मिलती
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      मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग

      मैने समझा था कि तू है तो दरख़्शां है हयात
      तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
      तेरी सूरत से है आलम[4] में बहारों को सबात
      तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रक्खा क्या है
      तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
      यूँ न था, मैने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये

      और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
      राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

      अनगिनत सदियों से तरीक़ बहीमाना तिलिस्म
      रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब में बुनवाये हुए
      जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ए-बाज़ार में जिस्म
      ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून मे नहलाये हुए
      जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
      पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
      लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
      अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे

      और भी दुख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
      राहतें और भी हैं वस्ल की रहत के सिवा

      मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग
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        Anish Arora
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        लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
        ज़िन्दगी शमअ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी

        दूर दुनिया का मेरे दम अँधेरा हो जाये
        हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाये

        हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की ज़ीनत
        जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत

        ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब
        इल्म की शमअ से हो मुझको मोहब्बत या रब

        हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
        दर्द-मंदों से ज़इफ़ों से मोहब्बत करना

        मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
        नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको
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          Låk$h@¥ Gûptå
          Låk$h@¥ Gûptå is now a member of this group
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          अल्लामा इक़बाल की मेरी अपनी पसंदीदा तरीन नज़्म शेयर करता हूँ, मुलाहिजा फरमाएं....

          कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र[1]! नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
          के हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़[2] में

          तरब आशना-ए-ख़रोश[3] हो तू नवा है महरम-ए-गोश[4] हो
          वो सरूद[5] क्या के छिपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़[6] में

          तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना
          के शिकस्ता[7] हो तो अज़ीज़तर[8] है निगाह-ए-आईना-साज़[9] में

          दम-ए-तौफ़ कर मक-ए-शम्मा न ये कहा के वो अस्र-ए-कोहन
          न तेरी हिकायत-ए-सोज़ में न मेरी हदीस-ए-गुदाज़ में

          न कहीं जहाँ में अमाँ[10] मिली जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली
          मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब[11] को तेरे उफ़्वे-ए-बंदा-नवाज़[12] में

          न वो इश्क़ में रहीं गर्मियाँ न वो हुस्न में रहीं शोख़ियाँ
          न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़[13] में

          मैं जो सर-ब-सज्दा[14] कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा[15]
          तेरा दिल तो है सनम-आशनाअ[16] तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में|


          शब्दार्थ:
          1 ↑ चिर-प्रतीक्षित सच्चाई
          2 ↑ विनम्र माथे
          3↑ स्वयं को आन्नद-मयी ध्वनि में प्रकट कर
          4 ↑ अपनी कृपा को किसी आवाज़ में प्रकट कर
          5 ↑ स्वर माधुर्य,स्वरावली
          6 ↑ साज़ की चुप्पी के पर्दे
          7 ↑ टूटा हुआ
          8 ↑ और भी अधिक प्रिय
          9 ↑ शीशागर की दृष्टि
          10 ↑ शरण
          11 ↑ मेरे भटकाव के अपराध के लिए
          12 ↑ दया मय, कृपालू पैरों
          13 ↑ अयाज़ की ज़ुल्फों की लटें भी उतनी घुंघराली नहीं रहीं
          14 ↑ प्रार्थना के लिए सर झुकाया
          15 ↑ पुकार
          16 ↑ हृदय से मूर्ति-पूजक
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            सब को दिल के दाग़ दिखाए एक तुझी को दिखा न सके
            तेरा दामन दूर नहीं था हाथ हमीं फैला न सके

            तू ऐ दोस्त कहाँ ले आया चेहरा ये ख़ुर्शीद मिसाल
            सीने में आबाद करेंगे आँखों में तो समा न सके

            ना तुझ से कुछ हम को निस्बत ना तुझ को कुछ हम से काम
            हम को ये मालूम था लेकिन दिल को ये समझा न सके

            अब तुझ से किस मुँह से कह दें सात समुंदर पार न जा
            बीच की इक दीवार भी हम तो फाँद न पाए ढा न सके

            मन पापी की उजड़ी खेती सूखी की सूखी ही रही
            उमडे बादल गरजे बादल बूँदें दो बरसा न सके
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              हम घूम चुके बस्ती-बन में
              इक आस का फाँस लिए मन में
              कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
              कोई दीपक हो, कोई तारा हो
              जब जीवन-रात अंधेरी हो
              इक बार कहो तुम मेरी हो।

              जब सावन-बादल छाए हों
              जब फागुन फूल खिलाए हों
              जब चंदा रूप लुटाता हो
              जब सूरज धूप नहाता हो
              या शाम ने बस्ती घेरी हो
              इक बार कहो तुम मेरी हो।

              हाँ दिल का दामन फैला है
              क्यों गोरी का दिल मैला है
              हम कब तक पीत के धोखे में
              तुम कब तक दूर झरोखे में
              कब दीद से दिल की सेरी हो
              इक बार कहो तुम मेरी हो।

              क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
              ये काज नहीं बंजारे का
              सब सोना रूपा ले जाए
              सब दुनिया, दुनिया ले जाए
              तुम एक मुझे बहुतेरी हो
              इक बार कहो तुम मेरी हो।
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                ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
                कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे

                ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
                अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे

                हँसो आज इतना कि इस शोर में
                सदा सिसकियों की सुनाई न दे

                अभी तो बदन में लहू है बहुत
                कलम छीन ले रोशनाई न दे

                मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो
                ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे

                ग़ुलामी को बरकत समझने लगें
                असीरों को ऐसी रिहाई न दे

                मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए
                जहाँ से मदीना दिखाई न दे

                मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ
                क़लम छीन ले रोशनाई न दे

                ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है
                रहे सामने और दिखाई न दे
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                  Aas  Muhammad Saifi
                  Aas Muhammad Saifi updated the group picture
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